बिहार की सियासत में फिर गूंजा 90 के दशक का नारा, बदलते समीकरणों के बीच गरमाई राजनीति

News Desk Patna:

बिहार की राजनीति में एक बार फिर 90 के दशक का मशहूर नारा “भूरा बाल साफ करो” चर्चा का विषय बन गया है। हाल के दिनों में आरजेडी नेताओं द्वारा इस नारे जैसी बयानबाजी ने सियासी हलचल तेज कर दी है। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इस पर चुप्पी साधे हुए है, जिससे राजनीतिक गलियारों में अटकलें तेज हो गई हैं कि क्या यह 2025 विधानसभा चुनाव की रणनीति का हिस्सा है या फिर सिर्फ जमीन का माहौल परखने की कवायद।

इस विवाद को लेकर जेडीयू के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद आनंद मोहन ने आरजेडी पर कड़ा निशाना साधा है। उन्होंने कहा कि इस तरह के बयान पिछड़ों को गोलबंद करने की कोशिश है, लेकिन अब 90 का दशक नहीं रहा। उनके मुताबिक, उस दौर में लालू प्रसाद यादव पिछड़ों के निर्विवाद नेता थे, लेकिन समय के साथ अतिपिछड़ा और दलित समाज उनसे अलग हो गया।

आनंद मोहन ने जातीय जनगणना के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि बिहार में अगड़ी जातियों की आबादी 10.56 प्रतिशत है। अगर मुस्लिम समुदाय की अगड़ी जातियों को भी जोड़ दिया जाए तो यह संख्या करीब 15 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि 2020 विधानसभा चुनाव में जीत और हार के बीच का अंतर मात्र 1 प्रतिशत रहा था। ऐसे में अगड़ी जाति का वोट बेहद अहम है और इसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता।

भले ही बिहार में अगड़ी जातियों की संख्या 10 प्रतिशत के आसपास हो, लेकिन उनका असर disproportionate रूप से बड़ा माना जाता है। आंकड़ों के अनुसार, बिहार में 30 प्रतिशत सांसद और 26 प्रतिशत विधायक अगड़ी जातियों से ही चुने जाते हैं। यही वजह है कि चुनावी रणनीति बनाने वाले दल इस तबके को हल्के में लेने की गलती नहीं कर सकते।

90 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद जब “भूरा बाल साफ करो” नारा बुलंद हुआ था, तब इसका असर पूरे राज्य की राजनीति पर देखा गया। उस दौर में आरजेडी ने बड़ी मजबूती से पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को एकजुट कर सत्ता हासिल की थी। लेकिन मौजूदा दौर में समीकरण बदल चुके हैं। तेजस्वी यादव ने भले ही आरजेडी को “ए टू जेड” पार्टी बताया हो, मगर जब उनकी पार्टी के नेता पुराने नारे को दोहराते हैं तो वह इसे नजरअंदाज कर जाते हैं और कोई सख्त कार्रवाई भी नहीं करते।

राजनीतिक जानकारों का मानना है कि बिहार की राजनीति में चुनावी मौसम आते ही “अगड़ा बनाम पिछड़ा” कार्ड बार-बार खेला जाता है। हालांकि अब इसका असर पहले जैसा व्यापक नहीं रह गया है और यह सीमित क्षेत्रों तक ही सिमट कर रह गया है। इसके बावजूद पुराने नारों की गूंज बताती है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में जातीय समीकरण एक बार फिर प्रमुख मुद्दा बन सकते हैं।

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